काश ! “और वे लम्हे
......................??? अंतिम खंड ७
अभी सिनेमा का शो शुरू होने में लगभग एक डेढ़ घंटे का समय बांकी था,घर की महिलाओं को चाय पीने की तलब हो रही थी, इन्हों ने अपनी इच्छा धीरेन से जताई ।
धीरेन ने कहा, "मैं भी चाय के ही बारे में सोच रहा था, चलो आज मेला के सबसे स्पेसल चाय की दूकान पर चलते हैं, यह दूकान बनारस
से आया है, सुनते हैं कि यह ‘मलाई मार के चाय’ पिलाता है" ।
"मलाई मार के चाय" ? सभी ने बड़ा आश्चर्य प्रकट किया, पर सब की "मलाई मार के
चाय" पीने की इच्छा प्रबल हो उठी, सब ने एक स्वर में कहा, "हाँ हाँ, पहले रेस्टुरेँट में चलकर
कुछ पेट पूजा कर ली जाय, फिर ये " मलाई मार के वाली चाय" पीई जाय ।
तभी रेस्टुरेँट और होटल वाली गली आ गयी और एक जोरदार आवाज ने सब का ध्यान
अपनी ओर आकर्षित किया, “आईये आईये पधारिये, यह है दिल्ली के चांदनी चौक का फेमस रेस्तुरांत, आपका अपना "पंजाबी रेस्तुरांत", हरदिल लाजवाब स्नैक्स, दिल्ली का फेमस कबाब, चांप, कटलेट,
सब कुछ यहाँ उचित दामों में उपलब्ध है, एक बार आजमाइए, फिर बार बार खाने का मन नहीं किया तो
पैसा वापस, इस बात की गारंटी दी जाती है, आईये आईये पधारिये” ।
उस ज़माने में रेस्टुरेँट में तरह तरह केस्नैक्स, जैसे सिंघाड़ा (समोसा), आलू चाँप, वेज कटलेट, वेजचाँप, नांन भेज कटलेट, नांन भेज चाँप सर्व किया जाता था, जब कि होटल में केवल नाश्ता, लंच और डिनर सर्व किया जाता था । सभी ने "पंजाबी रेस्तुरांत", में जाना तय किया और रेस्टुरेँट मेँ प्रवेश किया, अपने अपने पसंद के स्नैक्स खाए । मजा आ गया, सब ने एक स्वर में कहा, क्या कटलेट था ? तो किसी ने वेज चाँप की तारीफ की, कोई सिंघाड़ा से ही खुश था, सब बड़े प्रसन्न दीख रहे थे ।
यह रहा बनारसी चाय वाले की दूकान , धीरेन ने चाय वाले दूकान के
मालिक से कहा कि सब के लिए स्पेसल "मलाई मार के वाली चाय" पिलाईये” ।
जी, बस थोड़ी देर इन्तेजार करना पड़ेगा साहब, भीड़ बहुत है, आपके लिए तो स्पेसल तैयार कराता हूँ, तब तक यहाँ बेंच पर माता जी, और बहनजी को बैठने के लिए कहिये” ।
थोड़ी ही देर में वह स्पेसल "मलाई मार के वाली
चाय" आ चुकी थी, वाह ! ऐसी चाय तो हमनें अपनी
ज़िन्दगी में कभी भी नहीं पी, सीख लो सुभद्रा, घर मेँ बनाना होगा ? धीरेन ने अपनी पत्नी से कहा । वास्तव में ऐसी चाय केवल मेले में आने वाले
दर्शकों को प्रभावित करने के लिए बनाये जाते थे ।
"चलिए भौजी अब हम आपको बनारसी पान का
स्वाद भी चखा ही देते हैं, आप भी क्या याद करियेगा ? खाने के बाद आपके मूहँ से "वाह धीरेन "नहीं निकला तो मैं अपना
नाम बदल डालूँगा” ।
सभी बनारसी पान वाले की दूकान पर
पहुंचे और स्पेसल बनारसी पान लिया, "पान का स्वाद चखते ही कौशल्या देवी
ने कहा,
"वाह धीरेन, वाह वाह", "तुमने तो सच्चे कहा था, अब ई पान के बाद यहाँ का कलकतिया पान खाने का मन भी नहीं करेगा, अब तो हम रात का खाना खाने के बाद फिर
से ई पान खाने के बाद ही घर जायेंगे", कौशल्या देवी ने पान वाले धन्यवाद ज्ञापन किया ।
"तो इसमें कौन बड़का बात है ? खाना खाने के बाद पान खा कर ही घर
रवाना के लिए रवाना होंगे, अभी बड़के भैया के लिए दो पान हम बंधवा लेते हैं, खुश हो जायेंगे ई पान खा के” ।
सिनेमा के शो का टाइम हो चूका था, बनारसी पान मूहँ में दबाये सब विजय
टाकिज पहुंचे, बाबूजी पहले से ही वहां एक कुर्सी पर विराजमान थे, जैसे ही उन्हों ने सभी को देखा तो कह बैठे, “कहाँ लगा दी इतनी देर, हम यहाँ पर बैठे बैठे कब से इन्तेजार कर रहें हैं”
धीरेन ने बड़के भैया का मूड शांत करने के लिए बनारसी पान का बीड़ा निकाला और देते हुए कहा,
"ई लीजिये, आप के लिए बनवाने में देर हुई, जरा खा कर देखिये, ऐसा पान ज़िन्दगी में न कभी नहीं खाया होगा और न खाइएगा, ई कलकतिया पान खा खा के आपके मूहँ का जायका ख़राब हो गया
है" ।
बाबूजी, ने देखा कि सबका मूहँ पान से फूला हुआ है और ई धिरेनवा हमको बेवकूफ बनाने
की कोशिश कर रहा है, पर वे केवल मुसकुरा के रह गए, उन्हों ने पान का बीड़ा मूहँ में रख्खा, मूहँ में रखते ही उसकी खुशबू से बाबूजी गदगद हो गए, कहा, सही में, क्या पान है !
कहा, “अरे धीरेन सिनेमा के बाद याद से आठ दस बीड़ा यही पान का बंधवा के रख लेना, भूलियो मत” ।
विजय टाकिज का मैनेजर बंगाली बाबु तब तक वहां
पहुँच चुके थे, आते ही उन्हों ने कहा, "चलिए चलिए, शो का टाइम हो गया, सब के लिए वी. आई. पी. क्लास में बैठने का प्रबंध है, धीरेन बाबु, घर की महिलाओं को भी इसी में बैठा
लीजिये, वो जनाना क्लास में तो मारा मारी है ।
सभी को बंगाली बाबु का यह अर्रेंजमेंट पसंद आया, विशेष कर औरतों को, नहीं तो जनाना क्लास में तो डाइलोग भी ठीक से सुनाई नहीं पड़ता है, सभी ने बारी बारी से सिनेमा हाल में प्रवेश किया ।
मेले के सिनेमा हाल का क्या कहना था, टेम्पररी अर्रेंजमेंट का अदभुत नमूना था, पूरे स्ट्रकचर में बांस और लकड़ी के खम्बो का उपयोग किया गया था, हाल कम से कम एक सौ फीट लम्बा और चौड़ाई तीस फीट तो जरूरे रहा होगा ।
स्ट्रकचर के ऊपर बांस की ही टट्टी लगाकर तिरपाल
बिछा दिया गया था जो छत का काम करता था, तीन तरफ से साइड में मोटे कपडे डालकर स्ट्रकचर को हालनुमा शक्ल दे
दिया जाता था,
सिनेमा घर के कैम्पस के एक कोने में जेनेरेटर रूम हुआ करता
था जहाँ जेनेरेटर से बिजली पैदा की जाती थी, इसी बिजली से
प्रोजेक्टर को चलाया जाता था ।
हाल के सबसे शुरू में प्रोजेक्टर
रूम हुआ करता था, दो दो प्रोजेक्टर हुआ करते थे, इन प्रोजेक्टरों में कार्बन जलाकर तेज प्रकाश पैदा किया जाता था, इन प्रकाश की किरणें प्रोजेक्टर में लगी फ़िल्म के ऊपर पड़ती थी जिसे हाल के आखिर (एंड) में टंगे पैंतीस एम् एम् के परदे पर फोकस किया जाता था, और इस तरह फ़िल्म का प्रदर्शन हो पाता था ।
प्रोजेक्टर रूम के बाद सबसे पहला
"जनाना (महिलाएं) क्लास", जिसमें बैठने के लिए बेंच की
व्यवस्था थी, जनाना क्लास के बाद "वी. आई. पी. क्लास" और तब फर्स्ट, सेकंड और थर्ड क्लास हुआ करता था, फर्स्ट क्लास में कुर्सियां और सेकंड क्लास में बेंचों की व्यवस्था थी
बैठने के लिए, जब कि थर्ड क्लास में पुआल बिछा दी जाती थी बैठने के लिए ।
सिनेमा कैम्पस के एक दूसरे कोने में टिकिट घर हुआ करता था, ईटों
को कच्ची मिट्टी से जोड़कर उसके ऊपर टीन का छत देकर ये टिकिट घर बनाया जाता था
जिसमें तीन अलग अलग खिड़कियाँ फर्स्ट,
सेकंड
और थर्ड क्लास के लिए हुआ करती थी, महिलाओँ के लिए अलग से टिकिट घर बनाया जाता था ।
हाथ भर घुसने के लिए खिड़कियों में सुराख छोडी जाती थी, शौचालय का कोई प्रबंध नहीं था, केवल महिलाओं के लिए बांस की
ही टटियाँ बना कर घेर दी जाती थी और एक जमादारिन को वहां पहरा देने बैठा दिया जाता था ।
चूंकि ये सिनेमा घर मेले में केवल एक महीने के लिए शो दिखाने आते थे इसलिए
इन पर ज्यादा खर्च करना सिनेमा घर के मालिकों के लिए मुनासिब नहीं था, मेला ख़तम होने के बाद पूरे शरद ऋतु में जिले में लगने वाले प्रायः सभी मेले में यही स्ट्रक्चर उखाड़ कर लगाया करते थे, कम से कम खर्च में पूरा स्ट्रक्चर ये
तैयार करने में ये माहिर थे, आखिर यह उनका बिजनेस जो था ।
टिकिट की बिक्री जोरों पर थी, या यूँ कहें तो मारा मरी चल रही थी, आज ईतवार होने के कारण बगल के देश नेपाल के शहर विराटनगर और आस पास के इलाके से बहुत लोग मेला देखने आये हुए थे ।
कहने के लिए क्यू था, सेकंड और थर्ड क्लास की खिड़कियों पर
का सीन बस देखने लायक था, एक के ऊपर एक आदमी चढ़ कर सबसे
पहिले टिकिट ले लेना चाहता था, वैसे सबको पता था कि टिकिटवा तो मिल
ही जायेगा पर पहले लेने की होड़ में यह सब हो रहा था, सिनेमा हाल के अन्दर
सीट नंबर तो होता नहीं था, जो पहले प्रवेश किया, उसी के अनुसार अपना सीट लूट लिया,
मजे की बात
तो ये थी कि किसी को इसकी शिकायत नहीं थी, इन सब के ये इतने अभ्यस्त थे कि यह
सब कुछ इनके लिए एकदम नार्मल था ;
खैर, यह सब हो ही रहा था कि जोरों की सिटी
बजी, यह सिनेमा शुरू होने का सिगनल था, कुल तीन सीटियाँ बजती थी, पहली सिटी, आने वाले दर्शकों को एलर्ट करने के लिए, दूसरी सिटी का मतलब था कि शो शुरू हो चूका है और
समाचार दिखलाया जा रहा है,
और तीसरी सिटी फ़ाइनल सिटी, मतलब, पिकचर शुरू हो चूका है ।
फ़िल्म थी "नागिन", की कास्टिंग शुरू हो चुकी थी, सभी ने एक साथ कहा, "बाईस रील", मतलब फिल्म की लम्बाई से था, उन दिनों रील के नंबर से फिल्मों की
लम्बाई (लेंथ) का अंदाज देखने वाले कर लेते थे,
"बाईस
रील" का मतलब था कि फ़िल्म लगभग अढ़ाई घंटे की होगी, मुख्य कलाकार, "प्रदीप कुमार, बैजंती माला, और मुबारक' ................!
इसी तरह कास्टिंग आती रही और साथ साथ
दर्शक फ़िल्म की कास्टिंग के साथ नाम पढ़ते गए और बोलते गए, यह एक तरह से परंपरा सी बन गयी थी ।
फिल्म शुरू हो चूका था, ब्लैक एंड व्हाइट में पिक्चर थी, इस फ़िल्म के एक एक गाने
पहले से ही लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे, खूब आनंद ले ले कर बकोध्यानम सभी
देख रहे थे,
एका एक हाल में अँधेरा छ गया, अरे यह क्या हुआ ? तभी एक छोटा सा
कैपसन परदे पर दिखलाई पड़ा, "रुकावट के लिए खेद है", पता चला कि रील टूट गयी है, होता क्या था कि ये प्रोजेक्टर बड़े पुराने हुआ करते थे, अक्सर फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान
बीच बीच में रील कट जाया करती थी, प्रोजेक्टर को चलाने वाले
टेक्नेसियन उस रील को प्रोजेक्टर से उतार कर एक स्पेसल सोलुँसन (a type of liquid
) से जोड़कर
फिर से प्रोजेक्टर पर चढ़ा कर शो चालू करते, इसमें पांच
मिनट का समय
तो लग ही जाता था ।
शो फिर से चालू हो चूका
था, दर्शक वापस अपने अपने सीट ग्रहण कर चुके थे, एका एक सभी दर्शक चौंक पड़े, "अरे
ई तो रंगीन पिकचर हो गया ब्लैक एंड व्हाइट से", सभी के मूहँ से एक स्वर में यह शोर गूंजा, क्या पिकचर है ? क्या सीन फिलमाया है ? और सभी अपनी अपनी सीट पर एकदम से सीधे बैठ गए, अटेन्सन की मुद्रा में,एकाग्रचित !, लगा कि शायद ऐसा नहीं करते तो शायद ई
रंगीन सीन नहीं देख पाते ।
ई बैजंती माला तो रंगीनवा पिकचरवा में औरो सुन्दर
हो गयी
है", किसी दर्शक के ये उदगार थे बैजंती माला के प्रति, तभी सेकेण्ड क्लास में किसी दर्शक
ने अपने पास वाले बैठे व्यक्ति से पूछा, "ई गेवा कलर में है कि ईस्टमेन कलर में" ?
"अरे चुपचाप फिलिम देखो न, गेवा कलर है कि ईस्टमेन कलर , क्या फर्क पड़ता है तुमको, रंगीन है कि नहीं, इसके पहले
देखा था कभी कौनो पिक्चर रंगीन में" ? "जानते वानते तो हैं कुछ नहीं, चले आते हैं बोकराती झाड़ने" ? चुपचाप देखेंगे नहीं और बकर
बकर करते रहेंगे ।
इतना बोलने से भी उनका मन नहीं भरा था,
उन्हों ने अपने पास वाले बैठे व्यक्ति से बोला,
"सारी फिलिम में ई बक बक करते रहे
हैं, न ठीक से न देखेंगे और न किसी को देखने देंगे, इससे तो अच्छा होता कि हम यहाँ पर बैठते ही नहीं", इतना सुनते ही उन सज्जन की हालत बस देखने लायक थी ।
फ़िल्म का सबसे हीट गाना "मन डोले मेरा तन डोले" और व मशहूर "बीन" की धुन सुननें में सभी
मस्त थे कि तभी बड़े जोर से थर्ड क्लास में शोर मचा, शोर क्या मचा, एक तरह से हडकंप मच गई ;
क्या हुआ ? क्या हुआ ? की शोर से सारा हाल गूँज उठा, किसी ने कहा, "अरे सांप दिखा था हमको" ।
किसी ने दर्शक दीर्घा से जोर से चिल्ला कर कहा, 'अरे हम तो बोलिए रहे थे इतना मोहक धुन बनाया है ई बीन का कि सुनके साँपों दौड़ा चला आएगा, अरे ई तो सच्चे कमाल हो गया" ;
इतना सुनना था कि ये बात जंगल की आग की तरह पूरे मेले में फ़ैल गयी कि नागिन फिलिम में बीन की आवाज पर सिनेमा घर में सांप घूस आया है अब तो बस पूरे मेले में इसी घटना की चर्चा हो रही थी ;
किसी ने पूछा, कै ठो सांप था ?, तो किसी ने जानने की कोशिश की कि
कौन सा सांप था, गेहुमन कि करैत ?
ई सांप का
नाम क्या लिया कि अब हाल में तो भगदड़ ही मच गयी, सिनेमा के गार्ड और करम चारी पांच पांच सेल वाली लम्बी टार्छ लेकर चारों ओर रोशनी फ़ेंक फ़ेंक कर सांप को ढूंडने लगे, तभी उनमें से किसी एक को सचमुच एक लम्बा सा सांप दीख ही गया;
"अरे ई तो ढ़ोरिया सांप है, इसमें कोई जहर थोड़े ही होता है", इतना कह कर उन महापुरुष ने हाँथ से सांप पकड़
लिया और बाहर जाकर कहीं दूर फ़ेंक दिया ।
बात दरअसल यह थी कि यह सांप बाहुल्य इलाका था, चारों ओर जंगल और धान के खेत होने
के कारण बहुतायत की संख्या में सांप पाए जाते थे, इस घटना के पीछे भी यही बात थी, जहाँ पर मेला लगा था उसके आस पास का इलाका धान के खेत का था, वर्ष ऋतु समाप्त हो चुकी थी और शरद ऋतु का आगमन हो चूका था, ऐसे में ई ढ़ोरिया सांप जो धान के खेत में पानी में रहता था, वो निकल आया होगा रात्रि सैर के लिए, सांपो को वैसे भी रात में सैर सपाटे
में बड़ा आनद आता है, पर बात फ़ैल चुकी थी, ‘सब ने यही सोंचा कि जरूरे नागिन फिलिम के धुन पर ही सांप आया
होगा’ ; अनायास ही बिना पैसा खर्च किये फ़िल्म का प्रचार हो गया । पर इस भगदड़ के बीच भी फ़िल्म चालू रही, सब ने राहत की सांस ली, और पुनः फ़िल्म देखने में मगन हो गए ।
तभी परदे पर एक फ़िल्मी सांप हिरोइन को दंस लेता है, "अरे अभी एक सचमुच के सांप से निबटे ही थे लो ई फिलिम में तो हीरोइने को सांप से कटवा के मार दिया, अब क्या ख़ाक देखें सिनेमा, हम तो बैजंती माला को देखने आये थे और अब ई हीरोइने मर गयी" ।
"अरे क्या बकर बकर कर रहे हो, तुम तो ऐसे बोल रहे हो कि लगता है तुम ही ई फिलिम का स्टोरी लिखे हो, अभी देखना, हीरो आ के कुछ न कुछ उपाय कर के
अपना हिरोइन को बचा लेगा, हिरोइन को मार के किया फिलिम को
फ्लाप कराएगा" ?
उन महाशय को थोड़ी राहत महसूस हुई, पर वो बोले,
"ठीक है देखते
हैं, हाथ कंगन को आरसी क्या ? अभी थोडिये देर में पता चल
जायेगा" ।
तभी बाद वाले महाशय की बात सच दीखती हुई देखी, फ़िल्म का एंड ठीक इसी तरह से होता है, हीरो आता है, बीन की वही मोहक धुन बजाता है, और जो सांप हिरोइन को दंस कर गया था, वही सांप पुनः आकर वापस हिरोइन को
दंस करता है, बैजंती माला जिन्दा हो जाती है, हिरोइन का बाप जो
एक तरह से
विलेन है पिकचर में, वो ख़ुशी ख़ुशी अपनी बेटी याने बैजंती माला का हाथ हीरो प्रदीप
कुमार के हाथ में दे देता है ।
फ़िल्म का सुखद अंत, सब खुश, दर्शक खुश, पैसा वसूल, सिनेमा मालिक खुश, पिकचर तो सुपर हीट है, पूरा कमाई दे के जायेगा, फ़िल्म निर्माता भी खुश, वाह क्या फ़िल्म बनी और क्या मोहक, मधुर सुन्दर गीत, और सबसे सुन्दर बीन के संगीत का
जादू, जिसकी धुन पर सांप भी सिनेमा घर में चले आते हैं ।
फिल्म के ख़तम होने के बाद सभी सिनेमा घर से बाहर निकले, भूख के मारे सबके पेट में चूहा दौड़ रहा था, बाबूजी ने पूछा, "खाने के लिए कहाँ चलना है धीरेन" ?
'जी बड़के भैया, यहीं पास में कैलाश परबत होटल है, सुने है कि वहां का मीट और चावल खूब
टेस्टी बनता है, हम उसको पहले से ही बोल के रख्खे हैं" ।
"ठीक है, सब लोग वही चलो. अब जल्दी से खा पी
के घर चला जाये, रात भी काफी हो चुकी है" ।
सभी कैलाश परबत होटल की ओर चल पड़े, होटल का मालिक पहले से ही सारा
प्रबंध कर चूका था, इन लोगों के लिए बैठने की अलग से
व्यवस्था की गयी थी, फेमिली
केबिन में
कुर्सियां लगा दी गयी थी, होटल के मालिक ने पूछा कि थाली में परोंसे कि पत्तल में ?
बाबूजी ने कहा कि पत्तल में ही परोसिये,
"क्यों जी
पत्तल में खाने का मजा ही कुछ और है, लगेगा कि भोज खा रहे हैं", बाबूजी ने अपनी पत्नी से कहा ।
"हाँ हाँ, पत्तले ठीक रहेगा, पता नहीं थाली वाली ठीक से मांजता भी होगा कि नहीं, और पत्तल में खाना अपने आप
स्वादिस्ट भी हो जाता है", कौशल्या देवी ने कहा ।
सभी के लिए पत्तल सजा दी गयी, होटल के सर्व करने वाले कर्मचारी एक एक कर
खाना परोसने लगे, पत्तल में भात परोस दिया गया, उसके ऊपर राहड़ (तुअर) की दाल, मिटटी के चुकिए में मीट (सालन), साथ में आलू मटर का दम, धनिया और पुदीना कि चटनी,
और आचार, सलाद पापड वगैरह । सब ने चटखरे ले ले कर भर पेट खाया, खाने का भी रेट थाली के हिसाब से था, प्रति थाली रेट फिक्स था, जितना चाहिए खाइए ।
"क्या बढ़िया खाना बनाया है, लगता है कि शादी व्याह के कच्ची का
भोज खा रहे हों", बाबूजी ने कहा, सब ने लम्बी ढकार ली ।
"चलो अब ऊ बनारसी
पान खा कर घर चलें", कौशल्या देवी ने धीरेन
को पान की याद दिलाते हुए कहा, बनारसी पान की दूकान पर सब
ने पान का स्वाद लिया और थाने की ओर बैल गाड़ियों पर सवार होने निकल पड़े ।
गाड़ियों का कारवां वापस अपने घर की ओर चल पड़ा, सभी बहुत थक चुके थे, फिर भी मेले की चर्चा सब के जुबान पर थी, कोई सरकस के खेल की तारीफ़ कर रहा था
तो कोई ‘मलाई मार के वाली चाय’ की, किसी को कटलेट की याद सता रही थी तो कोई अब तक मीट भात का टेस्ट ले रहा था, सभी बड़े प्रसन्न और खुश थे, उनके मेले भ्रमण का यह प्रोग्राम
इतना जो शानदार बीता, सब ने धीरेन की प्रशंसा की ;
बाबूजी ने कहा, "मैं ऐसे ही धीरेन के गुण थोड़े ही गाता रहता हूँ" ।
धीरे धीरे सब ऊंघने लगे, रात का सन्नाटा, सड़क लगभग सुनसान थी, फिर भी नेपाल लौटने वाले मुसाफिर पैदल सड़क पर स्टेशन जाने के लिए चलते दिखलाई पड़ रहे थे, बैल गाड़ियों की चर मर करती हुई आवाज, बीच बीच में बैलों की घंटी की टनटनाहट !
क्या शमां थी, जब ये कारवां घने जंगल से गुजरता, तो भगजोगनी की रोशनी से जगमगाती सड़क और उस पर झींगुर की आवाज, एक अजीब सी शमां थी जिसे शब्दों में
व्यक्त करना दिन में तारे दिखने वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली बात होती इसे केवल अनुभव किया जा सकता था और
कुछ नहीं, बस केवल एक अनुभव .............?
वक्त कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब तो न बाबूजी
रहें और न वह संजुक्त परिवार, वक्त की गोद में सब धीरे धीरे एक एक
कर समां गए, सभी चाचाओं के अपने घर और उनका अलग परिवार, सभी चाचा भी चल बसे थे ।
शहर में बिजली १९६० में आ गयी थी, उस बिजली की चमक ने दीयों की चमक
को निगल लिया था, अब शहर में सभी बिजली के बल्ब जलाकर
दीपावली मना लेते हैं, बस नाम मात्र को खाना पूर्ति के लिए
दो चार दीये जला दिए, अब कहाँ वो केले की थम्ब, और वो करची के उपर सानी मिटटी, उस पर जलते दीये की रौशनी, अशोक के पत्ते की सजावट, सब समय के साथ विलीन हो गए ।
और ये मेले, बस नाम मात्र को मेला
खाना पूर्ति के लिए अभी भी लगता है, पर अब यह पशु मेला बन
कर रहा गया है, शहर की कोई दूकान अब मेला में नहीं जाती हैं, न सिनेमा ना ही कोई नौटंकी,
मेले की रौनक समय के बदलते परिवेश में विलीन हो गयी, मेले
की बस याद भर शेष रह गयी है संजोगने को.....................................!
अब तो केवल यादें रह गयी है, जब कभी नागिन फिल्म के गाने या बीन
की धुन सुनता हूँ तो पूरा चलचित्र चल उठता है, जैसे कल की ही घटना हो ?
"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन", किशोरे दा का गाया हुआ यह दर्द भरा
गीत कितना साकार हो उठता है !
काश और वो लम्हें
............................................................. !
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