काश और वे लम्हे
खंड २
महराज ट्रे में चाय और प्याज वाला कचड़ी ले आया था, चाय की चुस्कियां लेते लेते बाबूजी ने अपनी पत्नी से पूछा "हाँ तो पूजा की तैयारी हो गयी ?
पंडित जी
कितने बजे आयेंगे ?
"जी, साढ़े छः बजे का टाइम दिया है", कौशल्या देवी ने कहा, "तब तक अँधेरा भी हो जायेगा" ।
“और दीया बत्ती, मिठाई, सब इन्तेजाम हो गया है न, कुछ घटता है तो बोल दो, अभी मंगवा लेते है” ।
"नहीं, आप चिंता फिकर न करें, सब तैयार है, फिर कौशल्या देवी ने सभी की ओर देखते हुए कहा कि "सब लोग ठीक छः बजे तैयार होकर पूजा घर में आ जइयो, और सब लोग नया कपड़ा जो सिलवाया है वही पहनना, आज के दिन नया कपड़ा पहनने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं" ।
बाबूजी ने कहा, "अरे धीरेन, और मेले का क्या खबर है, मेले की सब तयारी हो गयी है क्या ? बी.डी.ओ. साहब से तुम्हारी भेंट तो
हुई होगी" ?
जी बड़े भैया, आज ही दोपहर में भेंट हुई थी, उन्हों ने कहा कि कल से मेला पूरे जोर शोर से शुरू हो जाएगा ।
"इस बार मेले में क्या क्या आया है, कै ठो सिनेमा घर चल रहा है” ?
"बड़े भैया, बी.डी.ओ. साहब बतला रहे थे कि इस बार चार चार सिनेमा घर को लाइसेंस मिला है चलाने के लिए, और एक सर्कस, दो दो नौटंकी भी है, बोल रहे थे कि खूब चहल पहल और रौनक रहेगी ।
"अच्छा ई पता चला कि कौन कौन फिलिम आ रहा है" ?
"जी बड़े भैया, सुन रहें हैं कि ई बार "नागिन" फिलिम सबसे ज्यादा चलने वाली है" ।
"अरे, वही ना, जिसका ऊ गाना बड़ा हिट हुआ है, क्या तो है ? बाबूजी याद करने की कोशिश कर ही रहे
थे तब तक नतिन, बड़े भैया बोल उठे, "मन डोले मेरा तन डोले” !
"हाँ, हाँ वही”
अरे धीरेन, बी.डी.ओ. साहब से कह कर ऊ पिकचरवा का “पास” लिए बनवा लो सब के " ?
उन दिनों सिनेमा देखने के लिए “पास” लेकर देखना बहुत बड़ी बात होती थी, ऐसा नहीं था कि बाबूजी टिकिट नहीं खरीद सकते थे, टिकिट भी सस्ता ही था, फर्स्ट क्लास का डेढ़ रुपैया, पर पास लेकर देखने वाले के लिए सिनेमा हाल मेँ फर्स्ट क्लास से पहले का एक कतार सुरक्षित रख्खा जाता था, जिसमें आराम दायक कुर्सियां लगाई जाती थी, इसे वी. ई. पी. क्लास कहते थे, शहर के सभी गण्य - मान और प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही पास “इसु” किया जाता था , पास सिनेमा कामैनजर “इसु” करता था ।
उस वक्त शहर के बी.डी.ओ. साहब और दारोगा जी बहुत बड़े हाकिम हुआ करते थे, एक तरह से वो जो बात कह देते, शहर के किसी भी व्यक्ति की क्या मजाल कि उस बात को टाल पाते ।
मेले का सारा प्रबंध बी.डी.ओ. साहब और दारोगा जी के ही जिम्मे था, धीरेन की बी.डी.ओ. साहब और दारोगा जी दोनों से अच्छी बनती थी या यूँ कहें दोस्ताना था, साथ उठना बैठना, और कभी महफ़िल भी लग जाती थी जिसमें
पीना पिलाना भी चलता था, धीरेन बड़ा ही प्रैक्टिकल व्यक्ति था, इसलिए उसने इन लोगों से अच्छी दोस्ती बनाकर रख्खी थी, बाबूजी को ये बातें मालूम थी, इसलिए उन्हों ने धीरेन से यह प्रश्न किया था ।
कौन सा दिन ठीक रहेगा जी ? बाबूजी ने अपनी पत्नी से पूछा "शनिचर या ईतवार” ?
“ईतवारे को रखिये, सब के लिए ठीक रहेगा” ।
तभी धीरेन अपने भाभी की ओर देखते
हुए बोला, "ठीक है भौजी, हम बी. डी. ओ. साहब से मिलकर पास का इन्तेजाम कर लेंगे, आप चिंता मत करो, और सब लोग ठीक से सुन लो, ईतवार का दिन फिक्स हुआ है मेला जाने के लिए, दिन का खाना खाने के बाद सब मेला चलेंगे, बच्चों के लिए भी बहुत कुछ आया है इस बार, और पंजाब, लुधियाना से गरम कपड़ा का ढेर सा दूकान आया है, जिसको खरीदारी करना है उसका लिस्ट उस्ट पहले से बना लो भाई, उससे आसानी रहेगी, इतना कह कर धीरेन
ने बड़े भैया से कहा, "ठीक है न भैया" ?
बाबूजी ने सहमति में अपने सर को हिलाया, फिर पत्नी की ओर देखते कहा कि
"ए जी, पोखरिया के हाँथ एक कप चाय और मेरा पान
भेजवा दो, चाय पीकर हम भी तैयार हो जाते हैं, मेरा बंडी,
कुरता और धोती निकल कर रख देना, पोखरिया को कह दो कि एक बाल्टी गरम पानी कर के गुसल खाने में रख देगा” ।
“और धीरेन, तुम एक दो सम्पनी या बैल गाडी का भी
इन्तेजाम कर लेना, सभी लोग आराम से मेला जा पाएंगे” ।
धीरेन ने कहा, "सब हो जायेगा, बस आप फिकर मत करिए, हम और बिरेन हैं ना" ।
नतिन ने कहा,"चाचा जी, मेरे लिए भी जो काम होगा
बताइयेगा" ।
सब लोग धीरे धीरे वहां से उठ कर पूजा के लिए तैयार होने को चल पड़े, बाबूजी ने गुड़ेगुड़े का लम्बा सा कश खींचा और चाय की प्रतिक्च्छा में अपने
आराम कुर्सी पर लेट से गए ।
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