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Wednesday, September 3, 2014

काश और वे लम्हे............? एक संस्मरण ?

काश और वे लम्हे............? यह एक संस्मरण है १९५० के दशक का, जब मेरे सहर में दीपावली किस प्रकार से मनाई जाती थी और ठीक उसके बाद उस समय के विख्यात फारबिसगंज मेले का विस्तृत वरणन,मेरे सभी पाठक इस कहानी जो एक  संस्मरण के रूप में संजोयी गयी है, पठनीय है, अरररीआ से प्रकाशित संवदिआ पत्रिका में यह प्रकाशित हो चुकी है,
यह ७ खंडो में प्रकाशित की जा रही है.इस संस्मररण को पढने के लिए लिंक निकघे दी जा रही है

http://lalitniranjan.blogspot.in
धन्यबाद
ललित निरंजन 

काश और वे लम्हे ................? (खंड १ )


खंड  
काश ! और वे लम्हे  ......................???
बिहार के अररिया जिले के अंतर्गत भारत - नेपाल बोर्डर पर विराटनगर से केवल बारह  किलो मीटर दूरी पर  अवस्थितफारबिसगंज, अर्थ व्यवस्था और व्यापार का बहुत ही बड़ा और मुख्य केंद्र रहा है Iपच्चास के दशक में यहाँ का मुख्य व्यापार जूट और धान की फसल थी, जो मुख्य रूप से मेवाड़  और राजस्थान से आकर बस गए मारवारियों के पास था

फारबिसगंज मेला, धरमगंज मेला, खगरा  मेला – ये वे नाम हैं जिनसे राज्यभर में अररिया जिले को लोकप्रियता हासिल है, अब जब  ये मेले अब अपनी पहचान खो रहे हैं, तब उन दिनों  फारबिसगंज मेले का एक अलग ही विशिष्ट स्थान था, और उस ज़माने में इसकी लोकप्रियता, बस देखने ही लायक थी  

अक्टूबर माह के समाप्त होते होते "धन कट्टी" (धान काटने की परंपरा को बोल चाल कि भाषा में वहां के निवासी "धन कट्टी" कहा करते हैं),  के बाद आस - पास के गावं वाले अपनी - अपनी फसल को बेचने के लिए फारबिसगंज आया करते थे I "धन कट्टी" समापन के पश्च्चात ही काली पूजन के दिन फारबिसगंज मेले का शुभारम्भ हो जाता था I

फारबिसगंज मेला, "माँ काली देवी का मेला" के नाम से भी विख्यात है I इस मेले में "माँ काली" की भभ्य मूर्ति स्थापित की जाती हैजिनका  पूजन पूरे मेले की अवधी में होता है । काली देवी का यह मेला - प्रत्येक र्वष अक्टूबर - नवम्बर माह में काली पूजन के साथ साथ ‘आयोजित किया जाता रहा है I सरकारी तौर पर तो पंद्रह दिन

का मेला लगता था, पर शुरू और अँत होते होते यह लगभग एक माह चल ही जाता है माँ काली की मूर्ति के विसर्जन के साथ साथ मेले के समापन की  उदघोषणा  की जाती है

जलेबी, हवा मिठाई, पिपरा के खाजे, मीना बाज़ार, जादू टोना, झूले, सर्कस, मौत का कुआँ, नौटंकी, पशु बिक्री और न जाने कितने रंग समेटे ये मेले अब अपनी पहचान खो रहे हैं। आधुनिकता का संजाल, ग्रामीणों का पलायन और बदलते जीवन शैली ने इन मेलों का महत्व  कम कर दिया. हर साल शीत  माह में लगने वाले इन मेलो में अब वह आकर्षण  नहीं दीखता जिनके लिए ये सदियों से मशहूर रहे हैं I

सन १९५४ की वह दीपावली, और मेले की वो शाम कैसे भूल सकता हूँ मैं, सब कुछ आज भी आईने की तरह साफ़ साफ़ दिखता है I आज के ही दिन  माँ  लक्ष्मी  और माँ काली  की पूजा बड़े ही धूम धाम से आयोजित की जाती है I हमारे घर पर विशेषकर इस पूजा का आयोजन बड़े पैमाने पर संपन्न किया जाता था I परिवार के  सभी सदस्य की उपस्थिति अनिवार्य थी I हमारे बाबूजी (चौधरी सुरेँद्  प्रसाद)   की यह कड़ी हिदायत थी कि परिवार के सभी लोग  जहाँ कहीं भी किसी भी शहर में होदीपावली में निश्चित  रूप से सम्मिलित हों, बाबूजी का यह आदेश सभी कोई बड़े आदर भाव से पालन करते थे I  

बाबूजी का परिवार बहुत ही लम्बा चौड़ा था, बाबूजी के  अपने ही खुद के सात बेटे थे, और तीन बेटियाँ थी, तीन बेटे और दो बेटियों की शादी हो चुकी थी I साथ में बाबूजी के दो  भाई और उनकी

पत्नियां और उनके बाल बच्चे भी बाबूजी के ही साथ रहते  थे  I बड़ा आदर था बाबूजी का पूरे परिवार में, वास्तव में बाबूजी एक पितामह की तरह अपने परिवार में पूजे जाते थे I

बाबूजी बड़े संभ्रांत और धनि व्यक्ति थे अपने इलाके के, एक तरह से उन्हें जमींदार भी कहा जा सकता है क्योंकि बहुत जमीन जायदाद थी, आढ़त का व्यवसाय था, बोरियां की  बोरियां चावल, दाल, तेल बाहर सप्लाई होता था, घर के सभी बड़े सदस्य इसी व्यवसाय से जुड़े थे, सभी एक साथ एक छत के नीचे रहा करते थे, आपस में भाई चारा जबरदस्त था, बहुत इज्जत थी पूरे शहर में, शहर के मुनिसिपलिटी के वे चेयरमेन थे ।

बहुत बड़ा मकान और हाता था बाबूजी का, लगभग एक एकड़ जमीन में उन्हों ने बीच "फारबिसगंज शहर" में मकान बनबाया था I मेरी माँ, बाबूजी की पत्नी (कौशल्या देवी), एक नेक और सीधी सादी संभ्रांत घर की महिला थी, पूरा घर उनकी ही देख रेख में चलता था I धर्म, पूजा पाठ और ईश्वर पर बड़ी ही आस्था थी उनकी, स्वयं भी नियमित रूप से रोज पूजा पाठ संपन्न करने के पश्चात ही अन्न - जल  ग्रहण किया करती थी, यह उनकी ही आस्था का फल था की आज उनका पूरा परिवार दीपावली पूजन के पावन अवसर पर एकत्रित था I
उस जमाने की दीपावली भीक्या दीपावली होती  थी,  परमपरागत शैली से शहर को सजाया जाता था, बांस काटने  वाले मजदूरों की कारीगरी का क्या कहना था कचचे बांस को काट कर इन्हें विभिन्न   आकार की करचियों का स्वरुप दिया जाता था,  केले के

थम्ब और   इन बांस की करचियों  को मिलाकर इन्हें नया नया रंग रूप दिया जाता था 
दीपावली की  रात जब इन करचियों पर सने मिटटी के ऊपर रख्खे  तेल के दीये जल उठते थे तो इनकी छंटा बस देखने लायक होती थी वास्तव में उन दिनों शहर में बिजली तो थी नहीं, सारा शहर  सालों भर रात के अँधेरे में डूबा रहता, बस साल में एक बार दीपावली  की शाम को सारा शहर  इन दीयों की रोशनी से जगमगा उठता थादीयों की रोशनी,  हवा की हल्की झोंको से लहरा लहरा कर इस तरह जलती मानों नयी नवेली दुल्हन अपनी मस्ती में बलखा बलखा कर चल रही हो, क्या अद्भुत दृश्य हुआ करता था,

पर अब कहाँ ? अब इन बिजली की चमक ने उन दीयों की चमक को बस अपने में निगल लिया हो, अब तो बस नाम मात्र के दो चार  दीयेँ जला लिए और बिजली के बल्ब  लटका   दियेंहो गयी  दिवाली   की रस्म पूरी । १९५४ की दीपावली की वह यादगार शाम !  अब तो बस केवल यादें रह गई हैं...........................................................................? ? ?

हाँ, १९५४ की दीपावली की उस  यादगार शाम की एक एक तस्वीर मेरे मानस पटल पर आज भी आईने की तरह साफ़ साफ़ दिख रही है । घर के बरामदे में बाबूजी बैठे हुए थे, उन्होंने हमारे पूराने नौकर पोखरिया को आवाज दी .....................................................................................?  ?  ?  
"अरे पोखरियादीया बत्ती सब ठीक कर लिया है ना", बाबूजी ने जोर से पोखरिया को पुकारते हुए बोले I

"जी मालिक,सब फिट है,   बदरिया भी केले का सब थम्ब काटकर  लगा दिया है, अब उसमें करची घोपने का काम में  लगा हुआ है, शाम होते होते ऊ अपना काम निबटा लेगा, फिरू तो हम उसमें मिटटी सान के चिपका देंगे, बस, बाकी सब बबुआ लोगन दीया बत्ती ठीक करन में जुटल हैं, सारा सामान मंगवा लिए हैं, आप कौनों चिंता नहीं करो मालिक", इतना कह कर पोखरिया बाबूजी के पैर थाम कर पैर टीपने की मुद्रा में बैठ गया I

"अरे अभी छोड़ दो आज, अभी पैर दबवाने का मन नहीं हो रहा हैऔर हाँ कुरसी - टेबुल सजा कर लगा दो, महराज (बावर्ची)  को बोलो कि  सबका चाय बाहर ही लगा दे, थोडा प्याज वाला कचड़ी  भी छान कर चाय साथ लगा देगा, और हाँ सब को खबर कर दो कि सभै का चाय बाहर में लग रहा है, सब लोग तैयार होकर आ जाएँ, मलकिनी को भी बोल देना" I बाबूजी पोखरिया को सारी हिदायतें देकर ही चुप हुए I

"जी मालिक", हम अभी सबको आपका हुकुम पहुंचा देते हैं I इतना कह कर पोखरिया वहां से बाबूजी के हुक्म की तामिल हेतु प्रस्थान कर गया I

एक एक कर बाबूजी के परिवार के सभी सदस्य वहां पहुँच चुके थे, मेरी मां जिन्हें सब नौकर चाकर "मलकिनी" कह कर बुलाते थे वो भी यहाँ आ चुकी थी , चाचा जी, चाचीसभी वहां मौजूद थे, बाबूजी का जो हुक्म था । 
   

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