खंड ३
पूजा की सारी तैयारी हो चुकी थी, परिवार के सभी सदस्य पूजा घर में
एकत्रित हो चुके थे, बस पंडित जी के आने की प्र्तिक्च्छा थी, तभी पोखरिया ने आकर सूचना दी कि पंडित जी भी आ गए हैं ।
पंडित जी ने आते ही बाबूजी से कहा, "परनाम बाबूजी" ।
बाबूजी ने भी पंडित जी को सम्मान देते हुए कहा "पंडित जी, परनाम" ।
पंडित जी ने मेरी माँ से पूछा "मलकिनी, सब इन्तेजाम हो गईल बा", पंडित जी भोजपुर इलाके के थे, वे भोजपूरी में ही बातें करते थे ।
"हाँ पंडित जी, पूजा शुरू करिए", बस आपकी ही प्रतिक्च्छा हो रही थी ।
परंपरागत तरीके से पंडित जी ने मां लक्छ्मी और मां काली की पूजा अर्चना संपन्न की, फिर उन्होंने आरती गाया,
"ॐ जय लक्छ्मी माता, ॐ जय काली माता ........................!
पूजा संपन्न हो चुकी थी, पंडित जी ने अपना प्रसाद और दक्छिणा लिया और फिर बिना कोई समय गवाएं वहां से पूजा कराने हेतु दूसरे घर की ओर चल दिए,
आज पूरी शाम
के लिए जो वे बुक थे ।
इधर आरती की थाल में दीया सजा कर कौशल्या देवी ने अपनी देवरानी से कहा, "ई परात में बहु ‘१०८ घी’ का दीया पूजा घर जला कर रख दिओ , और अपनी बड़ी बहु से कहा, ‘धीरेन की बहु, बाहर
बरामदे में भी जो रँगोली बनाया है उस पर ‘१०८ घी’ का दीया जला कर सजा दो, सब लोग प्रसाद ले लो और सब जगह दीया बत्ती कर दो” ।
पुनः कौशल्या देवी ने महराज को रात के खाने के लिए ढेर सारी
हिदायतें दी, "कहा, आज विशेष खाना बनेगा, खाना में आलू - मटर का दम, बैंगन - बड़ी की सूखी सब्जी, अरवा चावल, पूरी, चने की दाल और धनिया पुदीना की चटनी, ई सब बनेगा आज, और हाँ ध्यान से सब खाना बनाने के बाद पहले भगवान जी
को भोग लगाना मत भूलियेगा, आज का भोजन प्रसाद के रूप में खाया
जाता है" । सब ठीक से समझ में आ गयल कि नहीं" ? कौनों गड़बड़ न होई एकर ध्यान रखियो ?
"मलकिनी, अपने कौनों चिंता मत करियो. हम सब
समझ गयलिये, जैसन कहलियो वैसने सब टाइम पर हम तैयार कर देव”, महराज ने कहा ।
“बड़ी बहु, तू आलू मटर का दम का दम पका लियो, और मंझली बहु तू बैंगन - बड़ी की सूखी सब्जी ।
"अरे पोखरिया, गंगवा कहाँ है ? सब दीया में तेल बत्ती कर दिया है न", फिर नतिन, जतिन सब की ओर देखते हुए कहा "अब बाहर भी सब दीया जला लो, टाइम हो गया है", इतना कहने के बाद ही कौशल्या देवी ने दम लिया ।
सब अपने अपने काम में लग गए, पोखरिया और गंगवा ने बांस के थम्ब में घोंपे हुए करची पर सानी मिटटी चिपकाई और
उसके ऊपर थोड़े थोड़े अंतराल पर दीया सजाना शुरू कर दिया, नतिन, जतिन सब ने मिलकर दीये में तेल डाला, और बत्ती सजा दी, सभी बाबूजी का इन्तेजार कर रहे थे
कि पहला दीया वे प्रज्वलित कर दें फिर सब दीया जलाने का काम शुरू हो जायेगा ।
बदरिया ने इस बार कड़ी मेहनत से बांस और करची को मिलाकर मेन गेट के द्वार को सजाया था, दोनों ओर केले के थम्ब में करची
घोंप कर उसके ऊपर की ओर गोलाकार आर्च टाइप का आकर दिया था, और बांसों के बीच बीच में बड़े
डिजाईन से घोंपा था करची , सच, जगह जगह अशोक के पत्ते सजा कर, अपनी कारीगरी से उसने चार चाँद लगा
दिया था ।
"अरे पोखरिया , छत पे दीया बत्ती किया है कि
नहीं" ? धीरेन ने पूछा ।
"जी मंझले मालिक, सब फिट है, अब बाबूजी दीया जला दें तो हम छत पे
जाकर सभै दीया जला देंगे हाँ" !
तभी बाबूजी खद्दर का धोती और कुरता, कुरते पर कथ्थई रंग की बंडी और काँधे पर शाल रख कर बरामदे में
प्रवेश किया, सभी बाबूजी की ओर बस देखते ही रह गए, मेरी
माँ ने आगे बढ़ पैर छुए और उनका आशीर्वाद लिया, फिर
पूजा की थाली में से रोली और चन्दन का तिलक माथे कि लीलाट पर किया, बाबूजी और भी चमक उठे, तभी
पोखरिया ने एक थाल सामने कर दिया, थाल में माचिस, फूलझड़ी और छुरछुरी रख्खी थी, बाबूजी
ने माचिस की एक तिल्ली जलाकर
एक, दो दीये प्रज्वलित किये, फिर
परिवार के सभी सदस्यों ने दीया प्रज्वलित करना प्रारंभ कर दिया ।
"ए जी, ये ,
फूलझड़ी और
छुरछुरी भी जला दीजिये", कौशल्या देवी ने अपने पति से कहा ।
"हाँ हाँ, लो, अभी जला देते हैं", बाबूजी ने फूलझड़ी और छुरछुरी दीये
की रोशनी से प्रज्वलित किया, सारा वातावरण उस रोशनी से जगमगा उठा
।
सारे दीये जल चुके थे, उन दीयों की रोशनी ने अपने प्रकाश से पूरे अन्धकार को दूर कर दिया था, पूरा वातावरण और सजावट बस देखने ही लायक
थी, कितने शांत स्वरुप में दीये और बत्ती जल जल कर
प्रकाश के
किरणों की अद्भुत छंटा बिखेर रहीं थी, उन पर से आँखें हटाई नहीं जा रही थी, कुछ छंण सभी मन्त्र मुग्ध हो कर दीये से निकलती रोशनी और प्रकाश को बस निहारते रहे ,
तभी किसी ने अनारदाना प्रज्वलित कर दिया !
अनारदाने की चमकती सफ़ेद रोशनी की किरणों में सभी नहा उठे, फिर तो फूलझड़ी, छुरछुरी और अनारदाना के जलने की
झडी लग गयी ।
शरद ऋतु का मौसम हल्की हल्की दस्तक दे रहा था,
भीनी
भीनी ठण्ड पड़नी
शुरू हो गयी थी जिससे वातावरण खुशनुमा और सुहाना हो गया था, ठण्ड के मौसम में उन इलाकों में रात में भगजोगनी
(जुगनू) बहुत बड़े तादाद में निकला करती है, आज दीपावली की रात में इन
भगजोगनियों ने
अपनी धीमी धीमी
सफ़ेद टिमटिमाते रोशनी से गज़ब की छंटा बिखेर रही थी,
क्या शमां थी, शायद इन्हें शब्दों में पिरोया नहीं जा सकता।
बाबूजी ने बदरिया, पोखरिया और गंगवा को ईनाम में दस - दस रुपैये दिए, बदरिया की आँखें नम थी, उसकी मेहनत सफल हो चुकी थी, अपनी
तारीफ सुन कर वह शरमा रहा था, बाबूजी और मलकिनी दोनों के पैर छू कर उसने अपनी कृतज्ञता प्रकट की ।
शहर के आस - पास के तीन चार प्रतिष्ठित व्यक्ति दीपावली
की शुभ कामना व्यक्त करने हेतु पधार चुके थे, बाबूजी ने उन्हें सम्मान पूर्वक
बरामदें में बिठलाया और पोखरिया को आवाज दी ;
"अरे कुछ मिठाई, पकवान और चाय लेकर आओ, और चिलम भी सुलगा लेना, उन दिनों गुड़गुड़ा पेश करने का मतलब सम्मान पेश करना होता था, सभी बात चीत में मगन हो गए ।
परिवार के कुछ सदस्य शहर की दीपवाली का आनंद लेने हेतु घूमने निकल पड़े, बच्चें अपनी अपनी फूलझड़ी, छुरछुरी और अनारदाना जलाने और पटाखें छोड़ने में, मगन थे, घर कि औरतें चौका में रात के खाने की व्यवस्था में जुट गयी ।
खंड 4 के लिए older post पर क्लिक करें
No comments:
Post a Comment